देश बदलाव तो चाहता है लेकिन कोई विकल्प भी तो नजर नहीं आ रहा है
2019 के आम चुनाव का बिगुल बस बजने ही वाला है। सभी महारथी अपनी-अपनी रणनीति बनाने में लगे हुए हैं। राजग को सत्ता से उखाड़ फेंकने के लिए विपक्षी दल सारे बैर भाव भुलाकर गले मिल रहे हैं। सारी कवायद ठीक वैसी ही हो रही है जैसी सन् 1989 में हुई थी। तब भाजपा समेत सभी विपक्षी दल कांग्रेस के विरुद्ध लामबंद हुए थे। बीते पच्चीस साल से नदी के दो पाट की तरह अडिग दिखने वाले एक दूसरे के धुर विरोधी मायावती और मुलायम सिंह अब एक साथ आ चुके हैं। प्रियंका गांधी के सक्रिय हो जाने के बाद कांग्रेस अब एकला चलो की नीति पर विचार कर रही है
अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से जन्मी आम आदमी पार्टी भी सत्ता के लिए कुछ भी करने को तैयार है। उधर सत्ता में पुनः वापसी के लिए राजग ने तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें नोट दूँगा की तर्ज पर जनता के लिए देश का खजाना खोल दिया है| अब निर्णय देश की जनता को करना है कि वह दिल्ली की गद्दी किसे सौंपती है। हालांकि चुनाव तक देश की राजनीतिक तसवीर में अभी कितने और रंग भरे जाएंगे इसका अंदाजा किसी को भी नहीं है।
पिछली सभी सरकारें चुनाव पूर्व के अन्तरिम बजट को लोकलुभावन बनाने का सदैव प्रयास करती रही हैं इसलिए इस सरकार के अन्तरिम बजट को देखकर किसी को भी आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए। परन्तु इतना तो सभी को पता है कि पिछले सभी अन्तरिम बजट मात्र चुनावी घोषणा-पत्र ही साबित हुए हैं। तब फिर इस सरकार के अन्तरिम बजट को अलग से कैसे देखा जा सकता है। योजना बनाना अलग बात है और उसे लागू करके देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाना दूसरी बात है।